3 comments

शून्‍य एहसास
    क्‍या फर्क पड़ता है
    आघात-प्रतिघात से
    जब दर्द का एहसास
    शून्‍य पड़ जाता है।
यथार्थ तड़पता है
    महज शब्‍दों के जाल में
    किसी रक्‍तहीन दिल के टुकड़े की तरह
    जो इक बूँद रक्‍त को तरसता है।
    मूल्‍यों नैतिकता आदर्श मानवीयता
    की आड़ में
    अमानवीयता अनैतिकता का ताड़व
    नृत्‍य हुआ करता है, कहते है------
कहते हैं
    ये शहर है इंसानो का
फिर क्‍यों------
    खुद का अक्‍स अपना यहां
    इंसानियत को तरसता है ।
    अत्‍यन्‍त विस्‍तृत है जीवन
फिर क्‍यों--------
    हर शक्‍स,चन्‍द लम्‍हे
    हर मुखौटा उतार,जीने से डरता है
    क्‍या फर्क पड़ता है
    आघात- प्रतिघात से
    जब दर्द का एहसास
    शून्‍य पड़ जाता है।