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शून्‍य एहसास
    क्‍या फर्क पड़ता है
    आघात-प्रतिघात से
    जब दर्द का एहसास
    शून्‍य पड़ जाता है।
यथार्थ तड़पता है
    महज शब्‍दों के जाल में
    किसी रक्‍तहीन दिल के टुकड़े की तरह
    जो इक बूँद रक्‍त को तरसता है।
    मूल्‍यों नैतिकता आदर्श मानवीयता
    की आड़ में
    अमानवीयता अनैतिकता का ताड़व
    नृत्‍य हुआ करता है, कहते है------
कहते हैं
    ये शहर है इंसानो का
फिर क्‍यों------
    खुद का अक्‍स अपना यहां
    इंसानियत को तरसता है ।
    अत्‍यन्‍त विस्‍तृत है जीवन
फिर क्‍यों--------
    हर शक्‍स,चन्‍द लम्‍हे
    हर मुखौटा उतार,जीने से डरता है
    क्‍या फर्क पड़ता है
    आघात- प्रतिघात से
    जब दर्द का एहसास
    शून्‍य पड़ जाता है।

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रंग

बेइंतहा प्‍यार मिला जिन्‍दगी को

उस रंगीन कैन्‍वस की तरह

जो रंगहीन हुआ करता है
वक्‍त के बेरहम रंग के तले

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संघर्ष

अन्‍धकार से लड़ने की परिभाषा से दूर,

रोशनी से आवरित उस भीड में,

जिसकी चकाचौंध में मिचमिचाने लगी है आंखे,

धुंधलाने लगे है रास्‍ते,

खो गई है शक्‍ति,

पस्‍त हो गई है सारी धारणानाएं,

संधर्ष सामर्थ्‍य और चेतना के संग

निकल पडा है

किसी नये सेतु के सहारे

उस पार

समकालीन जीवन मं‍‍‍‍‍थन करने ।

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पढ लेते हैं कलमा सभी

कौन पढता और समझता है

हाशिए भी कहते हैं कुछ कहानी ।

सीमा स्‍मृति

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समय की धारा

गम के साये में समझ पाये,

कौन अपने हैं कौन है पराये।

पिधली बर्फ,नदी हो गई,

मिल सागर से, तूफान में तबदील हो गई,

सागर के हिस्‍से सिर्फ इलजाम हैं आएं।

निगल गई,धुंआ उगलती चिमनियां,

तारे आसमान के,

कुदरत के रंग है निराले, लोग कहते हैं आए,

अपनी करनी कब समझ हैं पाये।

आतंकवाद, आतंकवाद का गाना जो हैं, गाते आज,

शब्‍द उन्‍हीं ने हैं पिरोये,

सुर भी उन्‍हीं ने हैं लगाये,

धुन हो गई मतम की, कौन, किसे, क्‍या समझए ।

बन्‍द है एक कसाब कैद में,

यूं लगता है, दिलो कैद हैं कसाब ही के साये ।

सीमा स्‍मृति

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जिन्‍दगी

तराजू के एक पलडें में

वक्‍त और जरूरत के बदले जा‍ने पर,

मनुष्‍य का बदल जाना,

जीवन सफलता का है चिन्‍ह

वहीं

दूसरे पलडें में

वक्‍त और जरूरत के बदलने पर,

जिन्‍दगी की सोच बदलने की अहमियत के संग

जीवन रहस्‍य के कुछ क्षण होते हैं प्रतिबिम्‍ब,

खामोश

तराजू की नोंक पर

अर्द्धसत्‍य जीते

सत्‍य की तलाश में भटकते,

अपनी ही गहन तन्‍हाईयों से संधर्ष करते

जिन्‍दगी को जीवन नाम दे

किस दिशा में बढते चले हम।

सीमा स्‍मृति

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ए‍‍हसास

प्‍यार का अर्थ पाना नहीं, देना

प्‍यार पाने की इच्‍छा,

किसी के करीब होने चाह,

किसी का अपना कहलाने की एहसास

किस कद्र दर्द बन जाता है

ये मेरे कमरे की दीवारो पर

टकटकी लगाए इन आंखो से पूछो

या

कानों से, हर आहट पर सिरहन दे जाते हैं ।

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पहचान

इंसान थे हम,
देवता बना वो पूजते रहे

बेखबर इस बात से
पत्‍थरों की भी उम्र होती है
टूट के बिखर जाने पर
पूजने वाले पहचानते नहीं