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वो कहती हुई चली गई इस दुनिया से

कि

शब्‍दबद्ध किया करू मैं अपने उदगारों को प्रतिदिन

मैं

उदगारों को जीने का प्रयास करती रही

अथाह सागर से गहरी थी

मेरी उस सखी की सोच

आज

मैं उदगारों में शब्‍द खोजती हूँ

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रंग


बेइंतहा प्‍यार मिला जिन्‍दगी को

उस रंगीन कैन्‍वस की तरह

जो रंगहीन हुआ करता है

वक्‍त के बेरहम रंग के तले ।

सीमा स्‍मृति

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मूक’

स्‍पर्श केवल,

अंद्यकार की जबान नहीं,

यह भाषा है,

प्रत्‍येक जीवन की

भट्टी के अंगारो की तरह उकेरा है

हर स्‍पर्श से पूर्व जिन्‍दगी ने ।

सीमा स्‍मृति

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याद

नव अंकुरित कली सी ,

फिंजा में मोहक खुशबु सी,
हवा में सिमटी मद मस्‍त मस्‍ती सी,
चमकीली धूप सी,
शीतल चांदनी सी,
ये तेरी याद वर्षो से
मेरे जहन में करती अटखेली
तुम सखी सहेली थी मेरी,
दुनिया की निगाहों मे,
मेरे लिए आज भी तुम जिन्‍दगी की वो तस्‍वीर हो,
जिसे सहेजा है खुदा ने
अपने बनाये सभी रंगो से ,
तुम जीवन का वो आईना हो,
जिसमे आज भी अक्‍स निखर निखर जाता है ,

सीमा स्‍मृति